हमारे कस्बे में सैकड़ो साल पुरानी परम्परा को कायम रखते हुए इस बार भी राठौड़ और शेखावत दोनों समाज ने अपनी अपनी गणगौर की सवारी निकाली | यह सवारी उनकी कोटड़ी (मोहल्ला) से शुरू होकर मुख्य मार्ग से होकर तालाब तक गयी वंहा औरतो ने अपनी पूजा अर्चना की तालाब पर पानी पिलाया गया और वापस कोटड़ी में लाकर रख दिया गया |
गणगौर माता पर जानकारी भरी पिछली पोस्ट में आपको कोइ चित्र नहीं दिखा पाया अब आप मेरे मोलिक चित्र इस पोस्ट में देख सकते है | चित्रों को बड़ा देखने हेतु उन पर डबल क्लिक करे |
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| ईसर जी और गणगौर माता की सवारी मेडतिया कोटड़ी से निकलते हुए |
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| तालाब पर गणगौर माता के साथ महिलाए परिक्रमा करते हुए |
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| मेले में सजी धजी खिलौनों की दूकान |
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| मेले का दृश्य |
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| मेले में चाट वाले |
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| तालाब पर ईसर जी और गौरा माता, विश्राम स्थल |
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| मेडतिया सरदार फोटोग्राफी करवाते हुए |







....सभी चित्रों को आपने कलात्मक भाव से साकार किया है!..सभी चित्र सुंदर है!...धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर चित्रावली।
ReplyDeleteगणगौर की विदाई ......
ReplyDeleteशानदार तस्वीरे .एक नया अनुभव
गणगौर पर्व की बधाईया
आपकी इस पोस्ट ने मेरे ननिहाल कि याद दिला दी | जो कि नूआं के पास है | जब मैं छोटा था तब वहां भी कोटडी से सवारी निकाली जाती थी | लेकिन समय ने करवट ली और धीरे धीरे परिवर्तन आ गया| नरेशजी ये कोटडी किसे कहते है ?
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया ....
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट है नरेश भाई ! यह विरासत हम भूलते जा रहे हैं ! बधाई आपको !
ReplyDeleteमेले में चाट वाले .........शानदार तस्वीरे ....
ReplyDeleteमकान के अन्दर बने छोटे अँधेरे कमरों को ही कोटडी के रूप में जानती रही हूँ ??
ReplyDeleteमुझे भी इन तस्वीरों को देखकर अपने ननिहाल की याद आ गयी ...ऐसे मेले फिर कभी कहीं नहीं देखे !
वाणी जी ,हमारे यंहा कोटड़ी शब्द शब्द उस अर्थ में भी लिया जाता है जिस रिहायशी क्षेत्र में जंहा केवल राजपूत निवास करते है जो की सभी एक ही कुल और गौत्र के होते है | यह मेला आजकल उतना रोचक नहीं रहा है जितना पहले रहता था | आजकल लोग बाग कम जुडते है | आपका बलोग पर आने और टिपियाने का आभार |
ReplyDeleteभाई नरेश इसके लिए आपको धन्यवाद
ReplyDeleteइससे समाज मे जाग़ति पैदा होती हैा
योगेन्द्र सिंह राठौड् बगड्
BAHUT HI SHAANDAAR PHOTOS HAI......
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