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Tuesday, April 5, 2011

वातावरण में गूंज रहे है गणगौर माता के गीत

इस पोस्ट से पहले भी मैंने इस पर्व पर एक पोस्ट लिखी थी | आजकल हमारे यंहा गाँव गली में गणगौर माता का पूजन पर्व चल रहा है | मैंने भी विचार किया की आपको इस पर्व के बारे में और ज्यादा जानकारी दे दू |
      गणगौर का यह त्योहार चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएँ प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है।
       नवरात्र के तीसरे दिन यानि कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (माँ पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गयी। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में जाती हैं, दूब व फूल चुन कर लाती है। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है।
      आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर ) के साथ अपनी ससुराल आते हैं। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के बरतन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाती हैं। जहाँ पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहाँ विसर्जन किया जाता है वह स्थान ससुराल माना जाता है।
       राजस्थान का तो यह अत्यंत विशिष्ट त्योहार है। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती को तथा पार्वती ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती स्थानों पर भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। चैत्र मास की तीज को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है। दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है, यानि कि विसर्जित किया जाता है। विसर्जन का स्थान गाँव का कुँआ या तालाब होता है। कुछ स्त्रियाँ जो विवाहित होती हैं वो यदि इस व्रत की पालना करने से निवृति चाहती हैं वो इसका अजूणा करती है (उद्यापन करती हैं) जिसमें सोलह सुहागन स्त्रियों को समस्त सोलह श्रृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती हैं |
इस दिन भगवान शिव ने पार्वती जी को तथा पार्वती जी ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। सुहागिनें व्रत धारण से पहले रेणुका (मिट्टी) की गौरी की स्थापना करती है एवं उनका पूजन किया जाता है। इसके पश्चात गौरी जी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरी जी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से स्त्रियाँ अपनी माँग भरती हैं। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित है।
     गनगौर पर विशेष रूप से मैदा के गुने बनाए जाते हैं। लड़की की शादी के बाद लड़की पहली बार गनगौर अपने मायके में मनाती है और इन गुनों तथा सास के कपड़ो का बायना निकालकर ससुराल में भेजती है। यह विवाह के प्रथम वर्ष में ही होता है, बाद में प्रतिवर्ष गनगौर लड़की अपनी ससुराल में ही मनाती है। ससुराल में ही वह गणगौर का उद्यापन करती है और अपनी सास को बायना, कपड़े तथा सुहाग का सारा सामान देती है। साथ ही सोलह सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराकर प्रत्येक को सम्पूर्ण श्रृंगार की वस्तुएं और दक्षिण दी जाती है।
गणगौर  माता की कथा
भगवान शंकर तथा पार्वती जी नारद जी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफ़ी विलंब हो गया किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया।
वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। बाद में उच्च कुल की स्त्रियाँ भांति भांति के पकवान लेकर गौरी जी और शंकर जी की पूजा करने पहुँचीं। उन्हें देखकर भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा, 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब उन्हें क्या दोगी?'
पार्वत जी ने उत्तर दिया, 'प्राणनाथ, आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहागरस दूँगी। यह सुहागरस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यशालिनी हो जाएगी।'
जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वती जी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दिया, जिस जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। अखंड सौभाग्य के लिए प्राचीनकाल से ही स्त्रियाँ इस व्रत को करती आ रही हैं।
इसके बाद भगवान शिव की आज्ञा से पार्वती जी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू के महादेव बनाकर उनका पूजन करने लगीं। पूजन के बाद बालू के ही पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया। इसके बाद प्रदक्षिणा करके, नदी तट की मिट्टी के माथे पर टीका लगाकर, बालू के दो कणों का प्रसाद पाया और शिव जी के पास वापस लौट आईं।
इस सब पूजन आदि में पार्वती जी को नदी किनारे बहुत देर हो गई थी। अत: महादेव जी ने उनसे देरी से आने का कारण पूछा। इस पर पार्वती जी ने कहा- 'वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके वाले मिल गए थे, उन्हीं से बातें करने में देरी हो गई।'
परन्तु भगवान तो आख़िर भगवान थे। वे शायद कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अत: उन्होंने पूछा- 'तुमने पूजन करके किस चीज का भोग लगाया और क्या प्रसाद पाया?'
पार्वती जी ने उत्तर दिया- 'मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। उसे ही खाकर मैं सीधी यहाँ चली आ रही हूँ।' यह सुनकर शिव जी भी दूध-भात खाने के लालच में नदी-तट की ओर चल पड़े। पार्वती जी दुविधा में पड़ गईं। उन्होंने सोचा कि अब सारी पोल खुल जाएगी। अत: उन्होंने मौन-भाव से शिव जी का ध्यान करके प्रार्थना की, 'हे प्रभु! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप ही इस समय मेरी लाज रखिए।'
इस प्रकार प्रार्थना करते हुए पार्वती जी भी शंकर जी के पीछे-पीछे चलने लगीं। अभी वे कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें नदी के तट पर एक सुंदर माया महल दिखाई दिया। जब वे उस महल के भीतर पहुँचे तो वहाँ देखते हैं कि शिव जी के साले और सलहज आदि सपरिवार मौजूद हैं। उन्होंने शंकर-पार्वती का बड़े प्रेम से स्वागत किया।
वे दो दिन तक वहाँ रहे और उनकी खूब मेहमानदारी होती रही। तीसरे दिन जब पार्वती जी ने शंकर जी से चलने के लिए कहा तो वे तैयार न हुए। वे अभी और रूकना चाहते थे। पार्वती जी रूठकर अकेली ही चल दीं। तब मजबूर होकर शंकर जी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारद जी भी साथ में चल दिए। तीनों चलते-चलते बहुत दूर निकल गए। सायंकाल होने के कारण भगवान भास्कर अपने धाम को पधार रहे थे। तब शिव जी अचानक पार्वती से बोले- 'मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ।'
पार्वती जी बोलीं -'ठीक है, मैं ले आती हूँ।' किंतु शिव जी ने उन्हें जाने की आज्ञा नहीं दी। इस कार्य के लिए उन्होंने ब्रह्मापुत्र नारद जी को वहाँ भेज दिया। नारद जी ने वहाँ जाकर देखा तो उन्हें महल का नामोनिशान तक न दिखा। वहाँ तो दूर-दूर तक घोर जंगल ही जंगल था।
इस अंधकारपूर्ण डरावने वातावरण को देख नारद जी बहुत ही आश्चर्यचकित हुए। नारद जी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वह किसी ग़लत स्थान पर तो नहीं आ गए? सहसा बिजली चमकी और नारद जी को माला एक पेड़ पर टंगी हुई दिखाई दी। नारद जी ने माला उतार ली और उसे लेकर भयतुर अवस्था में शीघ्र ही शिव जी के पास आए और शिव जी को अपनी विपत्ति का विवरण कह सुनाया।
इस प्रसंग को सुनकर शिव जी ने हंसते हुए कहा- 'हे मुनि! आपने जो कुछ दृश्य देखा वह पार्वती की अनोखी माया है। वे अपने पार्थिव पूजन की बात को आपसे गुप्त रखना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने झूठ बोला था। फिर उस को सत्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपने पतिव्रत धर्म की शक्ति से माया महल की रचना की। अत: सचाई को उभारने के लिए ही मैंने भी माला लाने के लिए तुम्हें दुबारा उस स्थान पर भेजा था।'
इस पर पार्वतीजी बोलीं- 'मैं किस योग्य हूँ।'
तब नारद जी ने सिर झुकाकर कहा- 'माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत धर्म का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम का स्मरण करने मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है?
हे माता! गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा सार्थक होता है। जहाँ तक इनके पतिव्रत प्रभाव से उत्पन्न घटना को छिपाने का सवाल है। वह भी उचित ही जान पड़ती है क्योंकि पूजा छिपाकर ही करनी चाहिए। आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है।
मेरा यह आशीर्वचन है- 'जो स्त्रियाँ इस तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगल कामना करेंगी उन्हें महादेव जी की कृपा से दीर्घायु पति का संसर्ग मिलेगा तथा उसकी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होगी। फिर आज के दिन आपकी भक्तिभाव से पूजा-आराधना करने वाली स्त्रियों को अटल सौभाग्य प्राप्त होगा ही।'
यह कहकर नारद जी तो प्रणाम करके देवलोक चले गए और शिव जी-पार्वती जी कैलाश की ओर चल पड़े। चूंकि पार्वती जी ने इस व्रत को छिपाकर किया था, उसी परम्परा के अनुसार आज भी स्त्रियाँ इस व्रत को पुरूषों से छिपाकर करती हैं। यही कारण है कि अखण्ड सौभाग्य के लिए प्राचीन काल से ही स्त्रियाँ इस व्रत को करती आ रही हैं। (उपरोक्त लेख मेरी मौलिक रचना नहीं है | यह पहले भारत कोश में लिखा गया था | यंहा पर चित्र अभी नहीं लगाए गए है चित्र गणगौर विसर्जन के दिन लगाऊँगा उस दिन हमारे यंहा मेला भी लगता है | चित्र और वीडियो हेतु देखने हेतु आप दुबारा यंहा जरूर आइये  | )


5 comments:

  1. गणगौर माता कि कथा बताने के लिये बहुत -बहुत धन्यवाद् . अच्छी प्रस्तुति

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  2. बहुत अच्छी कथा बताई है आपने इसके लिए धन्यवाद
    बगड़ का गणगौर मैला जरूर देखते है हम भी बहुत अच्छा भरता हैं यह मेला

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  3. यह कथा बताने का आभार।

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  4. सुंदर उत्सव की की बेहतरीन जानकारी.....

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  5. गवर गणगौर माता , खोल किवाड़ी ए …


    नरेश सिह राठौड़ जी
    सस्नेहाभिवादन !

    गणगौर माता की कथा के लिए आभार !

    आज गणगौर पर्व मनाया जा रहा है …
    गणगौर पर्व और नवरात्रि उत्सव की शुभकामनाएं !

    साथ ही…

    *नव संवत्सर की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !*

    नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
    पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!

    चैत्र शुक्ल शुभ प्रतिपदा, लाए शुभ संदेश !
    संवत् मंगलमय ! रहे नित नव सुख उन्मेष !!


    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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