मेरा बचपन अपने छोटे से कस्बे(बगड ) में ही बीता है | बचपन से लेकर आजतक कस्बे में बहुत से बदलाव आ गए है | गांव के मध्य भाग में सूनापन बढ़ा है जबकि बाहरी हिस्से में लोग दूर दूर तक जंहा खेतीबाड़ी करते थे वंहा कोंक्रीट और सीमेंट के पेड़ लगा रहे है | पुराने मकान जिनमे सेठ साहूकार बूढ़े बुजुर्ग रहते थे आजकल उनके बच्चे उनमे रहना पसंद नहीं करते है | इसलिए वो या तो किरायेदारों के हवाले है या उनपर किसी भू माफिया ने कब्जा कर लिया या वो सुनसान पड़े अपना दर्द बयाँ कर रहे है | उन हवेलियों का सूना आँगन आज भी अपने मालिक की राह तक रहा है |
मेरी स्कूल के रास्ते में ऐसा ही एक घर आता है जिसे देख मै अपने बचपन की रोचक घटनाओं को याद कर लेता हूँ | उस घर में बुजुर्ग दंपति रहते थे | सेठ जी का नाम शायद मालीराम खटोड था | मै जब भी उनके घर के पास से गुजरता था तो एक काम मै नित्य रूप से करता था उनके दरवाजे के पास की दिवार जो एक फिसल पट्टी के रूप में है उस पर बैठ कर फिसलने का आनंद लेता था| इसका चित्र आप नीचे देख रहे है | इस आनंद में मेरे बचपन के बहुत से दोस्त भी रहते थे |
उस आनंद को प्राप्त करने के बाद उसके प्रतिफल में माँ द्वारा प्रसाद भी मिलता था | वो रोजाना मेरी निकर देख कर समझ जाती थी की आज भी मैंने उस दीवार पर फिसलने का आनंद उठाया है और बदले मे वो हाथ उठाती थी | उस समय निकर ही पहनते थे पाचवीं कक्षा तक निकर का ही चलन था आजकल के बच्चे तो पैदाइशी जींस पेंट धारक होते है |
कभी कभी वंहा पर बुजुर्ग ताऊ ताई का रूठना मनाना चलता था | रूठने का हक हमेशा ताई का ही रहता था | ताऊ बेचारा मनाता था मेरे स्कूल से लौटने के समय उनका दोपहर के भोजन का समय होता था ताई रूठ कर बाहर सीढीयों पर बैठ जाती थी | ताऊ खाना खाने के लिए उसकी मिन्नते करता था | ताऊ के कहे हुए शब्द आज भी मेरे मस्तिष्क पटल पर अंकित है | अरे भागवान खाना खा लो झगड़ा मुझसे है खाने से थोड़े ही है | तुम्हारी पसंद के गुलगुले(गुड और आटे द्वारा बनाए जाते है ) बनाए है | ये संवाद आज मेरी वैवाहिक जिंदगी में भी कभी कभी बढ़िया काम करते है |
मेरी स्कूल के रास्ते में ऐसा ही एक घर आता है जिसे देख मै अपने बचपन की रोचक घटनाओं को याद कर लेता हूँ | उस घर में बुजुर्ग दंपति रहते थे | सेठ जी का नाम शायद मालीराम खटोड था | मै जब भी उनके घर के पास से गुजरता था तो एक काम मै नित्य रूप से करता था उनके दरवाजे के पास की दिवार जो एक फिसल पट्टी के रूप में है उस पर बैठ कर फिसलने का आनंद लेता था| इसका चित्र आप नीचे देख रहे है | इस आनंद में मेरे बचपन के बहुत से दोस्त भी रहते थे |
ताऊ का घर |
उस आनंद को प्राप्त करने के बाद उसके प्रतिफल में माँ द्वारा प्रसाद भी मिलता था | वो रोजाना मेरी निकर देख कर समझ जाती थी की आज भी मैंने उस दीवार पर फिसलने का आनंद उठाया है और बदले मे वो हाथ उठाती थी | उस समय निकर ही पहनते थे पाचवीं कक्षा तक निकर का ही चलन था आजकल के बच्चे तो पैदाइशी जींस पेंट धारक होते है |
कभी कभी वंहा पर बुजुर्ग ताऊ ताई का रूठना मनाना चलता था | रूठने का हक हमेशा ताई का ही रहता था | ताऊ बेचारा मनाता था मेरे स्कूल से लौटने के समय उनका दोपहर के भोजन का समय होता था ताई रूठ कर बाहर सीढीयों पर बैठ जाती थी | ताऊ खाना खाने के लिए उसकी मिन्नते करता था | ताऊ के कहे हुए शब्द आज भी मेरे मस्तिष्क पटल पर अंकित है | अरे भागवान खाना खा लो झगड़ा मुझसे है खाने से थोड़े ही है | तुम्हारी पसंद के गुलगुले(गुड और आटे द्वारा बनाए जाते है ) बनाए है | ये संवाद आज मेरी वैवाहिक जिंदगी में भी कभी कभी बढ़िया काम करते है |
सच में गाँव के आँगन अब खाली हो गए हैं.... हाँ खेतों में ज़्यादा रौनक दिखती है...... बड़ा जीवंत लेख है सबको अपने गाँव में ..बचपन में ले जायेगा.....
ReplyDeleteBACHAPAN KI YADE........SHANDAR...
ReplyDeleteबहुत खूब ....एक अनूठापन है इस रचना में !शुभकामनायें नरेश भाई !
ReplyDeleteइस तरह फिसल फिसल हम अपनी हॉफ पैन्ट घिस चुके हैं बचपन में।
ReplyDeleteनरेश जी आपने तो आज बचपन की याद ताजा करवा दी आपने सही लिखा है आज लोग गावं को छोड़ कर दूर दराज रहने लगें हैं
ReplyDeleteनरेश जी आपने तो आज बचपन की याद ताजा करवा दी आपने सही लिखा है आज लोग गावं को छोड़ कर दूर दराज रहने लगें हैं
गांव के कुँए पर बनी सीढ़ियों पर हमने भी बचपन में अपनी कई निक्करें आपकी तरह घिसी है |
ReplyDeleteया कि उस समय ताऊ द्वारा कहे जाने वाले वो शब्द अब आपके काम आ रहे है :)
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